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मायावादी तथा विलासवादी नेता मनुवाद की आलोचना करते रहते हैं पहले तो ‘तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’ इस मंगलाचरण से सभा प्रारम्भ होती थी। जब देखा ब्राह्मणों के बिना विजय मिलनी कठिन है तो महामंत्रा की पूर्णाहुति कर ब्राह्मणों का आश्रय लिया और सफलता भी मिली। परन्तु ब्राह्मणों को कुछ पद तथा जीविका साधन तो मिले, मान्यता नहीं। अब मंगलाचरण में नेता के चरण स्पर्श
जरूरी है। इससे ब्राह्मणों के स्वाभिमान को धक्का लगा है परन्तु कलियुग है कुछ ऐसा करना ही पड़ता है। जिस मनु से मानव, मनुष्य, मानवता बनी उसकी आलोचना बेमानी है। वस्तुतः सर्वप्रथम मनुस्मृति का मुद्रण अंग्रेजों ने कराया कि भारत का पुराना संविधन कैसा है अगर उसमें हेर फेर कर दिया जाए तो जाति विभाजन हो सकता है, स्पृश्य अस्पृश्य की दुर्भावना हो सकती है। अंग्रेजों ने ही मुद्रण कराया और
मनमानी द्वेषपूर्ण अंश संस्कृत श्लोकों में भर दिया।
यह ब्राह्मणों का काम नहीं, और न ही ब्राह्मण ऐसा अपसंस्करण मिला सकता है। ब्राह्मण केवल स्वास्थ्य तथा पवित्राता के आधार पर ही स्पृश्य अस्पृश्य मानता है। आज भी संक्रामक रोगी अस्पृश्य है, जो डॉक्टर मलाशय आदि का ऑप्रेशन करते हैं वह भी तब तक अस्पृश्य होते हैं जब तक साबुन आदि से शुद्धता न कर लें। ऐसे कर्मचारी जो परिस्थिति वश मलीन हो गए हैं वह भी अस्पृश्य हैं साफ सफाई के बाद स्नानादिकर पवित्रा होते हैं वेद व्यास ने तो यहाँ तक कहा – ‘आभीरकंकाः यवना खसादयः’ ईश्वर की प्रार्थना से खस, यवन, अन्त्यज सभी पवित्रा हो जाते हैं।
भारतीय संविधन के 50 से अधिक संशोधन हो चुके हैं। अगर मनुस्मृति केअन्दर डाले गए अपभ्रंश हैं तो ब्राह्मण विद्वत्परिषद को संशोधन कर देना चाहिए। मनु न होते तो भाई बहन, माता पुत्रा, पति पत्नी तथा अनेक रिस्तेदारियों का ज्ञान ही न होता। राजा प्रजा के कर्तव्यों का ज्ञान ही नहीं होते ऐसा कुछ नहीं मूल मनुस्मृति में लिखा गया जो अव्यवहारिक हो। यह अलग बात है – ‘खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे’ की भावना से व्यर्थ आलोचना की जाए। अपने पूर्वजों को निरर्थक गाली देना अमानवीय है।